धनौरा की कार्यप्रणाली पर तीखे आरोप, जांच प्रक्रिया की पारदर्शिता भी कटघरे में..
सिवनी- अगर प्रशासनिक ढिलाई का कोई जीता-जागता उदाहरण ढूंढना हो, तो धनौरा स्थित एस.के. वेयरहाउस का यह प्रकरण संभवत मध्यप्रदेश का सबसे सटीक चित्र प्रस्तुत करता है। 15 अप्रैल 2025 को दर्ज हुई एक बेहद गंभीर शिकायत जिस तरह 150 दिनों तक विभागों, टेबलों और अधिकारियों की मेजों पर फुटबॉल की तरह उछाली गई, उसने न केवल वेयरहाउस की कार्यप्रणाली पर कठोर प्रश्न उठाए, बल्कि विभागीय नीयत को भी संदेह के घेरे में खड़ा कर दिया है।
शुरुआत यहीं से 13 अप्रैल 2025 की वह शाम जिसने प्रशासन को सवालों के घेरे में खड़ा किया
शिकायत के मूल में वह घटना थी जो 13 अप्रैल 2025 को शाम 4:00 से 5:30 बजे के बीच, एस.के. वेयरहाउस कहानी धनौरा में सामने आई। किसानों ने आरोप लगाया, तुलाई में मनमानी, किसानों से रुपये लेकर प्राथमिकता, सर्वेयर और खरीदी प्रभारी की मिलीभगत, एफएक्यू (FAQ) गुणवत्ता परीक्षण में खुली छूट, धूप में खराब हो चुके दानों को भी एफएक्यू योग्य बताकर खरीदी, किसानों पर दबाव जो देगा, उसी की तुलाई होगी, किसानों ने साफ कहा कि पूरा घटनाक्रम सीसीटीवी फुटेज में कैद है। यह फुटेज ही समूचे प्रकरण का सबसे महत्वपूर्ण साक्ष्य था, पर कहानी यहीं मोड़ लेती है।
150 दिनों तक गायब होता सच, और विभागीय फाइलों का महाभारत
शिकायत तो 15 अप्रैल 2025 को दर्ज हो गई। लेकिन इसके बाद जिसने घटनाक्रम ने रफ्तार पकड़ी, वह किसी प्रशासनिक मज़ाक से कम नहीं, निरीक्षक का अवकाश, पहला तर्क जांच अधिकारी अवकाश पर हैं, फुटेज उपलब्ध नहीं, दूसरा तर्क फुटेज 15 दिन में डिलीट हो जाता है, शिकायतकर्ता कृषक नहीं, तीसरा तर्क शिकायतकर्ता ने गेहूँ बेचा नहीं, इसलिए शिकायत संदिग्ध, जांच अधिकारी लगातार बदले गए, पहले वी.वी. शर्मा को जांच दी गई, वे मेडिकल अवकाश पर चले गए, फिर डी.के. डहेरिया उप-अंकेक्षक आए, उन्होंने एक नहीं, कई बार प्रतिवेदन दिया पर हर बार निष्कर्ष एक ही अनियमितता नहीं पाई गई, मुख्य साक्ष्य गायब होने के बाद भी जांच पूरी? जब विभाग ने 150 दिन बाद कहा, फुटेज उपलब्ध नहीं, तो सबसे बड़ा सवाल सामने आया, जब मुख्य साक्ष्य ही उपलब्ध नहीं, तो अनियमितता न मिलने की रिपोर्ट किस आधार पर लिखी गई? यहाँ से पूरा प्रकरण संदेह के कठोर घेरे में प्रवेश करता है, पत्रकारीय दृष्टि से सबसे बड़ा प्रश्न, क्या विभाग ने सच को खोजने के बजाय समय को ढाल की तरह इस्तेमाल किया?
शिकायतकर्ता के साथ विभाग का व्यवहार, क्या नागरिक के अधिकारों पर प्रहार?
प्रतिवेदनों में बार-बार यह लिखा गया, शिकायतकर्ता कृषक नहीं, इसलिए शिकायत निराधार, पत्रकारीय दृष्टिकोण से यह तर्क न केवल कमजोर है बल्कि प्रशासनिक शून्यता का स्पष्ट संकेत भी देता है, क्या भ्रष्टाचार देखने के लिए किसान होना ज़रूरी है? क्या सार्वजनिक व्यवस्था पर प्रश्न उठाने का अधिकार सिर्फ उनसे है जो सीधे लेन-देन में जुड़े हों? क्या एक नागरिक सार्वजनिक प्लेटफॉर्म पर हुई अनियमितता नहीं देख सकता? अगर ऐसा ही है तो फिर शिकायत प्रणाली सार्वजनिक हित की नहीं, सीमित दायरे की व्यवस्था बनकर रह जाएगी।
किसान की ज़मीन पर नहीं, फाइलों में उगाई गई औपचारिकता
शिकायतकर्ता ने 30 मई, 12 जून, 29 जुलाई, 27 अगस्त, 6 सितंबर हर स्तर पर विभागीय निराकरण को अमान्य बताया, एल-1 से लेकर एल-3 तक
अधिकारी बदलते रहे, प्रतिवेदन बदलते रहे, पर निष्कर्ष नहीं बदला, अनियमितता नहीं, उच्च अधिकारियों ने दो बार निराकरण को अमान्य भी किया, पर निचले स्तर पर वही घिसी-पिटी लाइन दोहराई जाती रही।
सीसीटीवी फुटेज सत्य का स्तंभ या प्रशासनिक सुविधा का बहाना?
शिकायत का केंद्र, सीसीटीवी फुटेज पर 150 दिन बाद कहा गया, फुटेज तो 15 दिन का ही रहता है। तो प्रश्न यह उठता है, जब शिकायत 15 अप्रैल को दर्ज हो चुकी थी, तो फुटेज को तुरंत सुरक्षित क्यों नहीं किया गया? जब जांच अधिकारी अवकाश पर थे, तो क्या विभाग का कोई दायित्व नहीं था कि वह फुटेज की सुरक्षा सुनिश्चित करे? क्या फुटेज का न मिल पाना मात्र संयोग है, या एक सुविधाजनक मार्ग? पत्रकारीय भाषा में इसे कहते हैं, सत्य से बचने के लिए समय को हथियार बनाना, अधिकारियों की भूमिका, चुप्पी सबसे बड़ा उत्तर 150 दिन का समय किसी भी जांच के लिए बहुत है। पर इस प्रकरण में 150 दिन ही सबसे बड़ा सवाल बन गए इतनी देरी क्यों? फुटेज सुरक्षित क्यों नहीं किया गया? हर बार एक जैसी रिपोर्ट क्यों? किसानों की बातों को अनसुना क्यों किया गया? शिकायतकर्ता की असहमति को नज़रअंदाज़ क्यों किया गया?
किसान की आवाज़ दबी, फाइल बंद
14 नवम्बर 2025 को अंतिम टिप्पणी दर्ज की गई, शिकायतकर्ता से बात नहीं हो सकी, फुटेज उपलब्ध नहीं, शिकायत समाधान-कारक शिकायत बंद, क्या यह समाधान था? या अनसुलझे प्रश्नों पर प्रशासन की खामोश मोहर? शिकायतकर्ता महीनों से कह रहा था, निराकरण गलत है, उच्च स्तर भी दो बार निराकरण को अमान्य कर चुका था, फिर भी अंतिम निर्णय शिकायत बंद। प्रशासन को घेरे में खड़ा करते हैं, क्या फुटेज का गायब होना लापरवाही है या जिम्मेदारी से बचने का रास्ता? क्या जांच रिपोर्ट केवल औपचारिकता निभाने के लिए लिखी गई? क्या किसानों की समस्याएँ आज भी फाइलों का बोझ बनकर रह गई हैं? किसानों का दर्द पर प्रशासन की दृष्टि सिर्फ कागज़ी आंकड़ों पर किसान बोले, तुलाई में पक्षपात, सर्वेयर और प्रभारी की मिलीभगत, धूप में खराब दाना भी एफएक्यू घोषित, पैसे लेने के आरोप, दबाव की स्थिति, केंद्र में अव्यवस्था, पर प्रशासन ने निराकरण में क्या लिखा? 21850 क्विंटल भंडारण ठीक मिला, किसानों को भुगतान हो चुका, फुटेज नहीं मिला, शिकायतकर्ता कृषक नहीं, सवाल यह नहीं कि भंडारण कितना हुआ, सवाल यह है कि घटना के समय क्या हुआ, उस पर जांच कहाँ है?
धनौरा वेयरहाउस जांच नहीं, जांच की रस्म पूरी
कई बार अधिकारी बदले गए, हर बार वही निष्कर्ष, यह दिखाता है कि जांच चरित्रहीन प्रक्रिया और केवल औपचारिकतावादी ढांचा भर रह गई, किसानों की समस्या गायब, मुख्य साक्ष्य गायब, पारदर्शिता गायब, दायित्व गायब पर निर्णय मौजूद, क्या सच में सच्चाई को दफन किया गया? पूरा प्रकरण एक सवाल बार-बार दोहराता है, क्या समय की धूल में वह फुटेज दबाया गया जिससे सच्चाई सामने आ सकती थी? और अगर ऐसा हुआ, तो यह मामला केवल वेयरहाउस का नहीं, प्रशासनिक ईमानदारी का परीक्षण है। यह मामला सिर्फ एक शिकायत नहीं, प्रशासनिक ढांचे पर गंभीर आरोप-पत्र है धनौरा वेयरहाउस का यह 150 दिन का प्रकरण बताता है कि जांच की इच्छाशक्ति न के बराबर रही, साक्ष्य को सुरक्षित करने की जिम्मेदारी नहीं निभाई गई, शिकायतकर्ता की आवाज़ को बार-बार अनसुना किया गया, निष्कर्ष तय था, और जांच उसी दिशा में ढाली गई, किसानों का विश्वास टूटता गया, और सच एक बार फिर फाइलों के बोझ तले दब कर रह गया, पत्रकारीय दृष्टि से यह मामला केवल एक वेयरहाउस की कमी नहीं बताता, यह बताता है कि जब प्रशासनिक तंत्र सच्चाई के प्रति निष्क्रिय हो जाए, तो किसान को न्याय नहीं, निराशा ही मिलती है।





