बाबली, भरदा, धारपाठा, धपारा, झामरमाल, देवरी, चरगांव, बिछुआ लोंदा, केवलारी, छपरा, उकारपार ग्राम पंचायतों में कागज़ी विकास की फसल, भ्रष्टाचार की जड़ें और प्रशासन की मौन-सहमति-जाँच अब अपरिहार्य..

जहाँ विकास की फाइलें मोटी हैं, वहीं सड़कों के गड्ढे ...

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जहाँ विकास की फाइलें मोटी हैं, वहीं सड़कों के गड्ढे और जनविश्वास के छेद और गहरे, कागज़ी विकास की इस नदी में असली गाँव कब डूब गया?

सिवनी- मध्यप्रदेश के ग्रामीण प्रशासन में पंचायतें शासन की पहली सीढ़ी मानी जाती हैं। यहीं से योजनाएँ लागू होती हैं, यहीं से बजट का उपयोग होता है, और यहीं से विकास की असली तस्वीर निकलनी चाहिए। लेकिन जब यही पंचायतें सत्ता, सिफ़ारिश और व्यक्तिगत स्वार्थ के गठजोड़ की पनाहगाह बन जाएँ तो विकास कागज़ों में चमकता है और जमीन पर धूल खाती उम्मीदें दिखाई देती हैं। जनपद पंचायत लखनादौन अंतर्गत बाबली, भरदा, धारपाठा, धपारा, झामरमाल, देवरी, चरगांव, बिछुआ लोंदा, केवलारी, छपरा, उकारपार जैसी कई पंचायतों में ग्रामीणों द्वारा उठाए गए सवाल लगातार सरकारी तंत्र की नींद उड़ा रहे हैं। ग्रामीणों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और पंचायत के पूर्व पदाधिकारियों के अनुसार, पिछले चार-पाँच वर्षों (2021–2025) में विकास की आड़ में ऐसा तानाबाना बुना गया है, जिसने व्यवस्था पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिए हैं। सवाल सिर्फ व्यय रजिस्टर, मास्टररोल और कैशबुक तक सीमित नहीं हैं, सवाल यह है कि ग्राम पंचायतें विकास के नाम पर आखिर किस रास्ते जा रही हैं? फाइलों में विकास की बारात, मैदान में हकीकत का भूत, कागज़ी विकास के पहाड़, ग्रामीणों की आँखों में चुभता सच सूत्रों के अनुसार, कई पंचायतों में फाइलों में सड़कें बन गईं, कागज़ों में नालियाँ चमक उठीं, बिलों में सैकड़ों ट्रिप रेत गिट्टी आ गई, खर्चों में एक-एक किलोमीटर की पाइपलाइन डाल दी गई, मजदूरी भुगतान में हजारों मजदूरों ने पसीना बहा दिया, लेकिन जमीनी निरीक्षण में ग्रामीण कहते हैं, साहब, यहाँ तो कुदाल-पत्थर भी नहीं हिलाया गया। यही आवाज़ और आस-पास की पंचायतों में सबसे अधिक सुनी जा रही है, रजिस्टरों की कथा, कैशबुक का महाभारत, व्यय रजिस्टर में मनमाने पृष्ठ, बाजार से उठाए गए बिल संदिग्ध, कैशबुक-रोकड़ में तिथियों का खेल, रसीदें–वाउचर मेल नहीं खाते, मास्टररोल में नाम एक, हस्ताक्षर दूसरे, मटेरियल का उपभोग दिखाया गया लेकिन सामान कब आया, किसने देखा कोई रिकॉर्ड नहीं।

जिन्हें सिस्टम में छोटी अनियमितता कहा जाता है, ग्रामीण उन्हें बड़ा खेल बताते हैं..

मनरेगा मजदूरों की मेहनत नहीं, कागज़ों की कलाबाज़ी चल रही है, मजदूरों की उपस्थिति कागज़ पर भीड़, मैदान में सन्नाटा, ग्रामीणों के आरोपों के अनुसार, मास्टररोल में दर्ज नाम ऐसे मजदूरों के हैं, जो मजदूरी वाले दिन गाँव में थे ही नहीं, कुछ ग्रामीणों ने कहा साहब, हमारे नाम से भी मजदूरी निकाल ली गई, और हमें पता तक नहीं चला। जॉब कार्ड नंबर तक किसी ने इस्तेमाल कर लिया। यह आरोप केवल एक पंचायत तक सीमित नहीं। ऐसी अनेकों पंचायत सहित कई पंचायतों में यही शिकायत दोहराई जा रही है, मशीन से खुदाई, बिल मजदूरों के नाम जहाँ मनरेगा में मशीन चलाना प्रतिबंधित है, वहाँ ग्रामीण बताते हैं, गड्ढे मशीन से खुदे, बिल मजदूरों के नाम से बने, भुगतान खातों में पहुंचा या नहीं उसकी जानकारी अस्पष्ट, मनरेगा की आत्मा मजदूरों की मेहनत है, लेकिन यहाँ मेहनत नहीं, कागज़ मेहनत कर रहे हैं, कागज़ी उपलब्धियाँ चमकती रहीं, लेकिन जमीनी स्थिति पर सवाल आज भी वही हैं, रोकड़ बही में तिथियाँ आगे–पीछे, मटेरियल बिलों के क्रम में गड़बड़ी, कैशबुक में मिलान न मिलने की शिकायतें सबसे अधिक हैं, ग्रामीण कहते हैं, भाई, यहाँ काम से ज्यादा कागज़ हिलाए गए, पैसा कागज़ में बहा है, जमीन पर नहीं।

प्रशासन की चुप्पी, सबसे बड़ा सवाल..

यही वह स्थान है जहाँ कहानी सबसे ज्यादा चुभती है, सवाल सरपंच, सचिव या सहायक सचिव का ही नहीं, सवाल यह है कि जिला, जनपद स्तर पर बैठा तंत्र आखिर क्यों खामोश है? क्या जनपद स्तर पर किसी ने फाइलें खोलकर देखीं? क्या साल दर साल भेजे गए बजट का सोशल ऑडिट सही हुआ? क्या जमीनी निरीक्षण केवल औपचारिकता रह गया? क्या रिपोर्टें कार्यालयों में दब जाती हैं? क्या प्रशासन फील्ड विजिट के बजाय फाइलों के आधार पर विकास मान लेता है? जब बड़े सवाल उठते हैं, तब जिम्मेदारों की चुप्पी सबसे बड़ा उत्तर बन जाती है।

कागज़, बिल और हस्ताक्षरों की त्रिमूर्ति, ग्रामीण शासन का अदृश्य जाल..

सूत्रों के अनुसार कई पंचायतों में तीन चीज़ें मिलकर पूरा खेल संचालित करती हैं, कागज़ जहाँ काम लिख दिया जाता है, कागज़ में सबकुछ संभव है। कागज़ पर 2 किमी सड़क भी बन जाती है और 200 मीटर नाली भी और अन्य कार्यों के बिल जहाँ खर्च दिखा दिया जाता है, स्थानीय दुकानों से उठाए गए बिल, कभी बिना मटेरियल, कभी बिना दिनांक, कभी बिना विवरण, हस्ताक्षर जहाँ जिम्मेदारियां ढँक दी जाती हैं, कभी ग्रामीणों से बिना जानकारी के हस्ताक्षर, कभी एक ही व्यक्ति द्वारा अलग-अलग नामों के हस्ताक्षर,कभी ऐसे हस्ताक्षर जो संदिग्ध दिखते हैं। ग्रामीण पूछते हैं, अगर सब ठीक है, तो रजिस्टर दिखाने में डर कैसा?

स्थलीय जाँच यही वह चाबी है जो सारे ताले खोलेगी..

पंचायतों में अनियमितताओं की जाँच कक्ष में बैठकर फाइलें देखकर नहीं हो सकती, जाँच तभी प्रभावी होगी जब स्थल निरीक्षण किया जाए, ग्रामीणों के बयान लिए जाएँ, मटेरियल की वास्तविक उपलब्धता देखी जाए, मनरेगा कार्यस्थलों की जाँच हो, नाली, सड़क, पाइपलाइन को मापा जाए, बिलों का स्रोत, दुकानों की हकीकत, उनके जीएसटी पंजीयन की स्थिति तय की जाए, ग्रामीणों का कहना है, साहब, अगर जाँच सिर्फ कागज़ देखकर करोगे तो कागज़ तो साफ़ हैं। जाँच जमीन पर करोगे तो सच्चाई खुद बोल उठेगी।

आखिर दोष किसका? सिस्टम का, जिम्मेदारों का, या चुप रहने वाली निगरानी का?

सबसे बड़ा अपराध वह है जो दिखाई भी देता है और अनदेखा भी किया जाता है, यहाँ तीन परतें सवालों के घेरे में हैं, पंचायत स्तर के आरोप, सचिव, सहायक सचिव, सरपंच पर ग्रामीणों के आरोप, फाइलों में हेरफेर, मास्टररोल में अनियमितता, बिलों में गड़बड़ी, जनपद स्तर की अनदेखी, ऑडिट रिपोर्टें, निरीक्षण कार्यवाही,
और फील्ड विजिट का अभाव, यही वह जगह है जहाँ गड़बड़ियाँ छिप जाती हैं, जिला स्तर की चुप्पी, कई बार शिकायतें ऊपर तक जाती हैं, लेकिन कार्रवाई फाइलों में दम तोड़ देती है।

ग्रामीणों की माँग, अब समय है कठोर, स्वतंत्र और निष्पक्ष जाँच का..

लगातार उठ रहे सवालों को देखते हुए ग्रामीणों का एक ही आग्रह है, सभी पंचायतों की पिछले 4-5 साल की स्थलीय जाँच की जाए, रजिस्टर, रोकड़, कैशबुक, बिल, मास्टररोल सभी की स्वतंत्र टीम द्वारा जांच हो, ग्रामवासियों के बयान दर्ज किए जाएँ, जो कार्य कागज़ में हैं, उनकी जमीन पर वास्तविकता जाँची जाए, दोषी पाए जाने पर कड़ी कार्यवाही हो क्योंकि ग्रामीण कहते हैं, विकास पैसे से नहीं, नीयत से होता है, और जब नीयत पर सवाल उठ जाएँ तो जाँच ही एकमात्र इलाज है, अगर जाँच अब नहीं हुई तो आने वाली पीढ़ियाँ पूछेंगी, कागज़ी विकास की इस नदी में असली गाँव कब डूब गया? यह रिपोर्ट न ग्रामीणों की पीड़ा का अंत है और न ही व्यवस्था की कमियों का यह बस वह आईना है जिसे देखने से कई लोग बचते हैं, लेकिन सच यही है कि पंचायतों की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता सबसे कमजोर कड़ी बन चुकी है, विकास के नाम पर कागज़ों की खेती, बिलों की फसल, और जिम्मेदारों की चुप्पी यह त्रिकोण ग्रामीण भारत की आत्मा को चोट पहुँचा रहा है, अब जिम्मेदारी उन हाथों में है, जो जाँच का आदेश देने की ताकत रखते हैं।

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