धनौरा एस.के. वेयरहाउस कहानी 150 दिन का यह प्रकरण जांच नहीं, प्रशासन की रीढ़ की हड्डी का ढह जाना है, जिले के अधिकारियों ने इस वेयरहाउस को धान खरीदी केंद्र कैसे बना रहें?

सिवनी- अगर किसी को यह देखने की इच्छा हो कि ...

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सिवनी- अगर किसी को यह देखने की इच्छा हो कि प्रशासन क्या होता है जब वह अपनी जिम्मेदारियों को गटर में फेंक दे?, तो धनौरा एस.के. वेयरहाउस का मामला उसके लिए पाठ्यपुस्तक है, यह वह प्रकरण है जहाँ सच नहीं गायब हुआ, सच को गायब किया गया? जहाँ 150 दिन की देरी लापरवाही नहीं थी, बल्कि सच को दबाने की सुनियोजित रणनीति लगती है।

13 अप्रैल की शाम, जहाँ अनियमितता नहीं, नंगा भ्रष्टाचार कथित तौर पर खड़ा था?

किसान बताते रहें, तुलाई के नाम पर पक्षपात की खुली दलाली, रुपयों में खरीदी जाने वाली प्राथमिकता, सर्वेयर और प्रभारी की खुली साँठगाँठ, खराब दानों को एफएक्यू बनाने की फर्जी कला, और जो देगा वही तुलेगा का सुखा हुआ, बेहूदा, दबंग बयान और सबसे बड़ा सच, सीसीटीवी में सब कैद होने का दावा, पर विभाग ने जो किया, वह बताता है कि फुटेज के सामने आते ही कई कुर्सियों के नीचे से जमीन खिसक सकती थी।

150 दिन यह देरी नहीं, सच की हत्या का पूरा कैलेंडर है..

15 अप्रैल को शिकायतदर्ज और विभाग का पहला तर्क, जांच अधिकारी अवकाश पर हैं, क्या इतनी महत्त्वपूर्ण शिकायत अधिकारी के छुट्टी से छोटी थी? या सच अधिकारी की तरह ही छुट्टी पर भेज दिया गया?

दूसरा तर्क, फुटेज 15 दिन में डिलीट हो जाता है, तो फिर 150 दिन किसके लिए प्रतीक्षा थी? क्या विभाग फुटेज को खुद मर जाने देना चाहता था?

तीसरा तर्क, शिकायतकर्ता किसान नहीं, क्या भ्रष्टाचार देखने के लिए किसान होना अनिवार्य है? या अनियमितता पकड़ने के लिए विभाग की तरह अंधा होना ज़रूरी है?

चौथा तर्क, शिकायतकर्ता ने गेहूं बेचा नहीं, यह तर्क नहीं, प्रशासन की बौद्धिक दिवालियापन का प्रमाण है, और अंत में अनियमितता नहीं मिली, जब साक्ष्य ही नहीं बचा, तो नहीं मिली लिखना आसान तो था, पर क्या यह सत्य का पोस्टमार्टम नहीं?

फुटेज, सत्य का स्तंभ, जिसे प्रशासन ने खुद गिराया..

सबसे बड़ा प्रश्न, जब शिकायत 15 अप्रैल को दर्ज थी, और प्रशासन जानता था कि फुटेज 15 दिन में मिट जाएगा, तो उसे सुरक्षित क्यों नहीं किया? उत्तर सरल है, सुरक्षित करते तो कई चेहरों से नकाब उतर जाता, यह लापरवाही नहीं, सत्य को दफनाने की व्यवस्था-निर्मित प्रक्रिया है, पत्रकारीय दृष्टि में इसे कहते हैं, साक्ष्य-नाश के माध्यम से जांच-नाश।

ऊपर अमान्य, नीचे वही सड़ी फाइल, यह तंत्र का गिरा हुआ चरित्र है?

उच्च अधिकारियों ने दो बार कहा, निराकरण अमान्य, लेकिन नीचे बैठे अधिकारी ऐसे लगे, मानो किसी एक ही वाक्य को बार-बार कॉपी-पेस्ट करने का सरकारी ठेका ले रखा हो अनियमितता नहीं मिली, यह सिर्फ जांच नहीं,
नीचे स्तर पर बैठी निष्क्रियता, निष्ठुरता और नाकारा मानसिकता का नंगा प्रमाण है?

14 नवंबर, एक ऐसा निष्कर्ष, जिसे पढ़कर शर्म भी पानी मांग ले..

शिकायतकर्ता से बात नहीं, फुटेज नहीं, मामला समाधान-कारक और फाइल बंद। इसे समाधान कहना, प्रशासनिक ईमानदारी का अपमान है, यह वह मुहर है जिसके नीचे सच को घुट-घुट कर मार दिया गया।

सबसे बड़ा सवाल, जिले के अधिकारियों ने इस वेयरहाउस को धान खरीदी केंद्र कैसे बना रहें?

पूर्व शिकायत लंबित, फुटेज गायब, सत्य संदिग्ध, किसान असंतुष्ट, जांच अमान्य घोषित पर फिर भी इसी वेयरहाउस को धान खरीदी केंद्र घोषित कर देने की क्यों? सुविधा? दबाव? या सच कहें, देखने की इच्छा ही नहीं? यह निर्णय किसान हित में नहीं, विभागीय सुख सुविधा और लापरवाही का चिट्ठा लगता है। यह फाइल नहीं, पूरा प्रशासनिक तंत्र कटघरे में है, धनौरा का यह मामला बताता है, विभाग जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार नहीं, सत्य संरक्षित करने की नीयत नहीं, जांच निष्पक्ष करने का साहस नहीं, और किसान की आवाज़ सुनने की इच्छा नहीं। यह वेयरहाउस प्रकरण नहीं तंत्र की ईमानदारी का एक्स-रे है, और तस्वीर चेतावनी देने लायक है।

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