सिवनी- बाबली, थांवरी, धपारा, बिछुआ लोंदा, केवलारी जहाँ शासन की राशि का पोस्टमॉर्टम होता है, काम नहीं..?

सिवनी- अगर किसी को विकास का मौन मृत्यु-लेख पढ़ना हो, ...

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सिवनी- अगर किसी को विकास का मौन मृत्यु-लेख पढ़ना हो, तो जनपद पंचायत लखनादौन की पाँच पंचायतों बाबली, थांवरी, धपारा, बिछुआ लोंदा, केवलारी का सिर्फ एक दौरा काफी है। यहाँ गांव नहीं, फाइलें तरक्की कर रही हैं, काम नहीं, बिल फल-फूल रहे हैं, विकास नहीं, कागज़ी लूट का साम्राज्य स्थापित है। ग्रामीणों की भाषा अब इतनी कड़वी हो चुकी है कि प्रशासन की नींद चीर दे, हमारे गाँव में अगर कुछ सबसे तेज़ है, तो वह है, फर्जी कागज़ी काम की रफ़्तार। यहाँ विकास नहीं होता, यहाँ विकास दिखाया जाता है। यहाँ काम धरातल पर नहीं उतरता, काम फाइलों में पैदा होता है और वहीं मर जाता है, यहाँ जनता नहीं पूछती, काम हुआ? यहाँ जनता पूछ रही है, भुगतान हुआ तो किसका हुआ?

सड़कें टूटीं, नालियाँ धँसीं, पानी गायब, लेकिन बिल चमकते, भुगतान दौड़ते..

👉बाबली पंचायत कागज़ मोटे, सड़क पतली अन्य कार्य की पतले ग्रामीणों की व्यथा सीधी है, हर साल कागज़ पर सड़क अन्य कार्य बन जाते है, पर ज़मीन पर सड़क अन्य कार्य ऐसी है जैसे जान-बूझकर छोडे गई हो। मरम्मत, निर्माण, अन्य कार्य सब फाइलों में पूरा, लेकिन गाँव की हालत मानो विकास को ताना मार रही हो।

👉थांवरी पंचायत पानी नहीं, भुगतान बह रहा है, नल-जल योजना कागज़ों में घर-घर पहुँच चुकी, पर जनता का सवाल तीर जैसा न पाइप आया, न पानी पर भुगतान सीधा पहुँच गया?

👉धपारा पंचायत विकास गायब, बहाने सबसे ज्यादा, ग्रामवासियों का तीखा व्यंग्य, काम पूछो तो कहते हैं फाइल में है। भुगतान पूछो तो कहते हैं सिस्टम में हो गया। पर विकास किस सिस्टम में है, यह कोई नहीं बताता।

👉बिछुआ लोंदा कागज़ी विकास का कारखाना यह पंचायत ग्रामीणों की नज़र में कागज़ी भुगतान की फैक्ट्री बन चुकी है। योजनाएँ कागज़ में आती हैं, भुगतान निकलता है, लेकिन गाँव में न काम आता है, न कोई ठेका दिखता है।

👉केवलारी पंचायत काम मरता है, बिल पैदा होता है, ग्रामीणों का कटाक्ष, केवलारी में काम बाद में सोचते हैं, बिल पहले तैयार करते हैं। कुछ कार्य कागज़ पर कई बार पूर्ण दिखाए गए, पर जमीन पर एक ईंट तक नहीं रखी गई, कागज़ी कलाबाज़ी का स्थायी खेल बाजार से बिल उठाओ, पंचायत में जमा करो, भुगतान लो, पैसा बाँटो, काम गायब, सूत्रों का दावा प्रशासन के सीने पर हाथ रखकर चोट करता है, यहाँ एक स्थायी कागज़ी चक्र चलता है, बाजार से बिल उठाओ (सामग्री आए या न आए, किसी को फर्क नहीं), पंचायत में बिल जमा करवाओ, जनपद से भुगतान निकलवाओ, राशि वापस बाँट दो, फिर कह दो काम पूरा हुआ, गाँव में विकास की एक ईंट नहीं, पर कागज़ पर विकास की सुनामी। ग्रामीणों की तड़पती आवाज़ कागज़ का पेट भर रहा है, गाँव भूखा पड़ा है।

सरपंच, सचिव बेलगाम, जनपद अधिकारी ढाल बनकर खड़े जनता पूछे तो जवाब नहीं

इन पंचायतों के ग्रामीण अब खुलकर बोलने लगे हैं, सरपंच, सचिव अपनी मर्जी के राजा, जनपद अधिकारी उनकी ढाल और गाँव उनकी नजर में सिर्फ एक दस्तावेज़। जमीनी निरीक्षण? किसके हिस्से में? कब हुआ? किसने देखा? जनता का दर्द, जनपद कार्यालय क्या सिर्फ भुगतान मशीन है? धुरपत बिलों की राजधानी काम न हो, भुगतान जरूर हो, ग्रामीणों की चर्चा में सबसे बड़ा नाम धुरपत। यहाँ भुगतान की रफ़्तार रॉकेट से तेज़, पर काम की रफ़्तार कछुए से भी धीमी। कुछ काम तो सोचने से पहले ही पूर्ण दर्ज हो जाते हैं।

प्रशासन की चुप्पी, यह चुप्पी साजिश है या गहरी नींद?

ग्रामीणों की तड़कती आवाज़, यह चुप्पी सामान्य नहीं, यह किसी सच को बचा रही है, अफसरों के तयशुदा जवाब, शिकायत आएगी तो देखेंगे, निरीक्षण में समय नहीं, भुगतान तो सिस्टम कर रहा है, लेकिन जनता पूछ रही है, सिस्टम गाँव को क्यूँ नहीं देखता? यह पैसा जनता का है, जनता अब हिसाब माँगने उठ खड़ी है। जनता के तीखे सवाल, जो जनपद और जिला प्रशासन की नींद तोड़ने चाहिए, अगर काम नहीं हुआ, तो भुगतान कैसे हो गया? अगर भुगतान हुआ, तो पैसा गया कहाँ? क्या जनपद अधिकारियों ने कभी वास्तव में निरीक्षण किया? क्या पंचायतें शासन के पैसे का उपयोग सिर्फ कागज़ों में कर रही हैं? ग्रामीण विकास विभाग जमीन पर विकास देखने के लिए है या सिर्फ बिल देखने के लिए? गाँव की टूटी सड़कें चिल्ला रही हैं, जिम्मेदार कौन है? विकास की लाश भटक रही है, पंचायत कहती है हमने बिल जमा कर दिए, जनपद कहता है सिस्टम ने भुगतान किया, प्रशासन कहता है शिकायत आएगी तो देखेंगे तीनों तरफ से सिर्फ एक आवाज़ मिलती है, जिम्मेदारी हमारी नहीं। पर ग्रामीणों की आवाज़ गूंज रही है, या तो विकास दिखाओ, या फिर हिसाब दो। क्या प्रशासन कागज़ी विकास के इस साम्राज्य को ढहाने की हिम्मत दिखाएगा? जनपद पंचायत लखनादौन की ये पाँच पंचायतें अब सवाल नहीं, एक चेतावनी बन चुकी हैं, यह मामला किसी एक गाँव का नहीं, यह फाइलों में पलती उस व्यवस्था का आईना है, जहाँ काम मरता है, और बिल जीवित रहता है। अब कागज़ नहीं, जमीन पर विकास चाहिए।

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