सिवनी जिले का जनपद पंचायत लखनादौन एक ऐसा प्रशासनिक ढाँचा, जहाँ शासन की कलम ऊपर-ऊपर विकास लिखती है, लेकिन ज़मीन नीचे-नीचे घाव दिखाती है। वर्ष 2020 से लेकर आज दिनांक 2025 तक, पाँच पंचायतें- बाबली, थांवरी, धपारा, बिछुआ लोंदा और केवलारी- ऐसी प्रशासनिक उलझनों, निर्णयहीनता, अनियमितताओं, कागज़ी निर्माणों और रिकॉर्डेड कामों का ऐसा महाभारत लिख चुकी हैं, जिसे अब सिर्फ़ कागज़ी विकास कहना भी इन पंचायतों के दर्द का अपमान है। इन पाँचों पंचायतों में सरकारी राशि का प्रवाह तो तेज रहा, लेकिन कार्यों का प्रवाह धीमा होता-होता कई जगह रुक ही गया। गाँवों की पगडंडियों पर विकास की गंध नहीं, बल्कि काग़ज़ की खुशबू बिखरी मिली। मजदूरों के हाथों में फावड़ा कम, और फर्जी उपस्थिति की स्याही ज़्यादा दिखाई दी। शासन कहता रहा, मनरेगा में पारदर्शिता सर्वोपरि लेकिन पंचायतें दिखाती रहीं, कागज़ पारदर्शी है, लेकिन जमीन अपारदर्शी और यही विरोधाभास आज इन पंचायतों को मजबूर कर रहा है कि वे ज़ोर से कहें, अब जांच ही एकमात्र रास्ता है, क्योंकि ग्रामीण वर्षों से यही सवाल पूछते आए हैं, शासन की राशि कहाँ गई? रोज़गार सूची में दर्ज मजदूर कहाँ काम करते दिखाई दिए? मास्टररोल पर उपस्थिति किन खेतों में भरी गई? कौन सा तालाब भरा और कौन सा कागज पर ही सूख गया? किसने भुगतान पारित किया और किसने माप पुस्तिका खोली भी या नहीं? और जब ग्रामसभा, सामाजिक अंकेक्षण, जनपद कार्यालय और जिला स्तर की व्यवस्थाएँ लगातार शिकायतों के बावजूद मौन बनी रहती हैं, तब पत्रकारिता ही वह अंतिम दरवाज़ा बन जाती है, जो सच की माचिस से फाइलों की धूल में धधकते सवालों को दिखाती है। जब पाँचों पंचायतों में एक जैसे लक्षण दिखाई दें, तो फिर जाँच सिर्फ पंचायत की नहीं, पूरी प्रणाली की होनी चाहिए। 2020, 2025 पाँच वर्ष, पाँच पंचायतें, और विकास की पाँच अलग-अलग कहानियाँ, इन पाँच वर्षों में शासन ने सैकड़ों योजनाएँ भेजीं, मनरेगा, 14वीं/15वीं वित्त आयोग, अमृत सरोवर, जल संरक्षण, सड़क मरम्मत, जलग्रहण कार्य, सीसी रोड, नाली निर्माण, तालाब गहरीकरण आदि लेकिन इन पाँच पंचायतों में कई तालाब कागज़ पर बने, कई सड़कें फाइल में पक्की और जमीन पर कच्ची, कई मजदूर सूची में रोज़गार पाते रहे, लेकिन गाँव में दिखाई नहीं दिए, कई सामग्री खरीद तो हो गई, लेकिन भंडारण का रिकॉर्ड शून्य, कई भुगतान सिस्टम में तैरते रहे, लेकिन कार्यस्थल पर पानी नहीं टपका, पंचायतों की शिकायतें इतनी अधिक हैं कि ग्रामीण कहते, यह विकास नहीं, कागज़ी घोड़े हैं, जो दफ़्तरों में चौबीस घंटे दौड़ते रहते हैं।
अब जाँच क्यों अनिवार्य?
क्योंकि, दो साल से मास्टररोल की विसंगतियाँ सामने आती रहीं, तीन साल से मजदूरों की उपस्थिति पर सवाल उठे, चार साल से पंचायत स्तर पर सामाजिक अंकेक्षण अधूरे रहे, पाँच साल से ग्रामसभा की कार्यवाही सवालों में घिरी हुई है, जब अनियमितताएँ वर्ष-दर-वर्ष ढेर बनाती जाएँ, तो किसी भी शासन की पहली ज़िम्मेदारी होती है, जांच शुरू करना, न कि शिकायतकर्ताओं को चुप कराना।





